Chhupa Sa Kuch — छुपा-सा कुछ

Amidst life's trials and tribulations, this poem reflects on the silent struggles and the quest for understanding in a world that seems indifferent.

By Vyom

Chhupa Sa Kuch — छुपा-सा कुछ

A haunting exploration of life’s trial, loneliness and the search for connection by author Vyom.

छुपा-सा कुछ — Vyom

क्या लिखूं कि जीवन में कठिनाई है,

ये भी लिख लूं तो फिर पढ़ाऊं किसको?

सोचता हूँ — चीखें सुनाऊँ जो मुँह से निकल ही नहीं रहीं,

या एक ग़ज़ल बनाऊँ… और बहलाऊँ सबको।



सब कुछ टूट रहा है, और मैं ईंटें समेट रहा हूँ,

इन्हें जोड़ दूँ, एक महल बनाऊँ — पर उसमें ठहराऊँ किसको?



एक वक़्त था जब पाना था बहुत कुछ,

अब कुछ पाया है — पर वो दिखाऊँ किसको?



मुँह मोड़ लिया है हर किसी ने, पर खुदगर्ज़ भी हैं सब,

जिन्हें बुलाऊँ, वो आ भी जाएंगे — पर अब मैं बुलाऊँ किसको?



अब मन नहीं करता अपनी किस्मत से लड़ने का…

बात बस इतनी सी है — पर ये बतलाऊँ किसको?